ढलवा लोहा | ढलवा लोहे के प्रकार, और उपयोग | Cast Iron And Types Of Cast Iron

 

Is Post Mein Ham Jaanenge Dhalava Loha Aur Dhalava Lohe Ke Gun, Dhalava Lohe Ka Upayog Evam Dhalava Lohe Kee Utpaadan Vidhi, Kyoopola Bhattee (Chupol Furnachai)Aur Dhalava Lohe Kee Seejaning



दोस्तों इस पोस्ट में हम जानेंगे ढलवा लोहा और ढलवा लोहे के गुण, ढलवा लोहे का उपयोग एवं ढलवा लोहे की उत्पादन विधि, क्यूपोला भट्टी (Cupola Furnace)और ढलवा लोहे की सीजनिंग (Seasoning Of Cast Iron) आदि के बारे में |

ढलवा लोहा (Cast Iron)

ढलवा लोहे को अंग्रेजी भाषा में कास्ट आयरन Cast-Iron  कहा जाता है |
ढलवा लोहे में कार्बन की मात्रा दो रूपों में पाई जाती है-एक फ्री कार्बन तथा दूसरी संयुक्त कार्बन
जिस ढलवा लोहे में संयुक्त कार्बन अधिक होता है, वह कठोर होता है और उसके उपर आसानी से मशीनन (Machining) नहीं किया जा सकता है|
तथा जिस ढलवा लोहे में फ्री कार्बन की मात्रा अधिक होती है वह मुलायम होता है और इसी आसानी से मशीनन किया जा सकता है |

ढलवा लोहा किस भट्टी से प्राप्त होता है

ढलवा लोहा क्यूपोला भट्टी (Cupola Furnace) से प्राप्त होता है |
कच्चे लोहे (Pig Iron) और ढलवा लोहे की स्क्रैप को कोयले तथा चूना पत्थर के साथ क्यूपोला भट्टी (Cupola Furnace) मैं निश्चित अनुपात में भरकर 1250 डिग्री सेंटीग्रेड 1350 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म करके प्राप्त किया जाता है, जिसे सांचों में भरकर एकत्रित कर लिया जाता है |

क्यूपोला भट्टी (Cupola Furnace)

क्यूपोला एक प्रकार की ऐसी भट्टी होती है, जिसको मृदु इस्पात (Mild Steel) की प्लेटों से बनाया जाता है और इसके आंतरिक भाग पर अग्निसह ईटों (Fire Brtcks) का अस्तर लगाया जाता है |
क्यूपोला भट्टी की ऊंचाई 5 मीटर से 10 मीटर तथा व्यास 1 मीटर से 3 मीटर तक होता है|
इस भट्टी को बनाने के लिए 6 मिली मीटर से 10 मिली मीटर तक मृदु इस्पात की चादर काम में ली जाती है |
इस भट्टी के अंदर कच्चा लोहा (Pig Iron) और ढलवा लोहे की स्क्रेप, कोयला और चूने के पत्थर को 2:4:1 के अनुपात में डालकर 1250 डिग्री सेंटीग्रेड से 350 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म किया जाता है | गर्म होने से लोहा पिघलता है, इस पिंगले हुए लोहे को सांचों में भर दिया जाता है | यही ढलवा लोहा (Cast Iron) होता है |
क्यूपोला भट्टी से एक बार में 2 से 4 टन तक ढलवा लोहा तैयार किया जा सकता है |

क्यूपोला भट्टी की कार्यविधि (Functions Of Oupola Furnace)

इस भट्टी में कच्चे लोहे को धातु चिप्स के रूप में डालते हैं |
इसमें सबसे पहले भट्टी के पेंदे में आग जलाकर इसे चार्ज कर लिया जाता है | इसके बाद कोयले की एक परत डाली जाती है |
तथा इसके बाद धातु और लोहा चिप्स की एक परत और बाद में तूने पत्थर की एक परत लगाकर 1350 डिग्री सेंटीग्रेड तक गर्म किया जाता है |
भट्टी के गर्म होने पर कच्चा लोहा पिघलता है और नीचे बैठ जाता है तथा बाकी अशुद्धियां ऊपर आ जाती हैं |
अब इस पिंगले हुए लोहे को सांचों में ढाल दिया जाता है |और इस प्रकार हमें ढलवा लोहा प्राप्त होता है |
भट्टी से प्राप्त ढलवा लोहे में 2 से 4% तक कार्बन रहता है तथा इसके अलावा 0.8 से 3% सिलिकन,0.5% फास्फोरस, 0.1% से 0.2% तक गंधक तथा 0.5% से 1% तक मैग्नीज की अशुद्धियां मिली हुई रहती हैं |

ढलवा लोहे की गुण (Properties Of Cast Iron)

ढलवा लोहे में पाये जाने वाले गुण निम्नलिखित हैं
  • ढलवा लोहा भंगूर प्रकृति का होता है |
  • इस में कार्बन की मात्रा 2% से 4% तक होती है|
  • इसको फोर्ज नहीं किया जा सकता है|
  • इसमें जंग लगने की संभावना कम होती है |
  • इसमें आघातवर्धनीयता तथा तन्यता का गुण नहीं पाया जाता है |
  • इस का गलनांक लगभग 1150 डिग्री सेंटीग्रेड से 1200 डिग्री सेंटीग्रेड तक होता है |
  • इसमें खिंचाव शक्ति कम तथा दबाव शक्ति अधिक होती है|
  • कास्ट आयरन खारे पानी में मुलायम हो जाता है |
  • यह ठंडा होने पर सिकुड़ता है |
  • ढलवा लोहे में प्रत्यास्थता का गुण नहीं होता है |
  • यह आघात या चोट सहन नहीं कर सकता है |
  • ढलवा लोहे का तनन सामर्थ्य कम होता है |
  • इसमें तनन सामर्थ्य लगभग 1.26 से 1.57 भीतर टन/ सेंटीमीटर होता है |

ढलवा लोहे का उपयोग (Use Of Cast Iron)

ढलवा लोहा/कास्ट आयरन के मुख्य उपयोग निम्नलिखित हैं|
  1. कास्ट आयरन का अधिकतर उपयोग मशीन के आधार (Base) एवं अन्य पुर्जे बनाने के लिए किया जाता है |
  2. इसका उपयोग इंजन तथा अन्य ऑटोमोबाइल पुर्जे (Parts) बनाने में किया जाता है |
  3. ढलवा लोहे का उपयोग वॉइस, बी ब्लॉक, तथा सरफेस प्लेट आदि बनाने के लिए भी किया जाता है |

ढलवा लोहे के प्रकार (Types Of Cast Iron)

ढलवा लोहा पांच प्रकार का होता है| जो निम्नलिखित हैं |
  1. सलेटी ढलवा लोहा (Grey Cast Iron)
  2. वाइट ढलवा लोहा (White Cast Iron)
  3. मोटल्ड ढलवा लोहा (Mottled Cast Iron)
  4. आघातवर्धनीय ढलवा लोहा (Malleable Cast Iron)
  5. चिल्ड ढलवा लोहा (Chaild Cast Iron)

सलेटी ढलवा लोहा (Grey Cast Iron)

यह ढलवा लोहा सलेटी (Grey) रंग का होता है |
इसमें कार्बन की मात्रा 3% से 4% तक होती है, जिससे फ्री कार्बन की अपेक्षा संयुक्त कार्बन कम होता है |
सलेटी ढलवा लोहा दूसरे प्रकार के ढलवा लोहे की अपेक्षा कम नरम होता है, तथा इस पर आसानी से मशीनिंग क्रिया की जा सकती है |

सलेटी ढलवा लोहे का उपयोग

इसका अधिकतर उपयोग मशीनों के बेड और फ्रेम, सिलेंडर, तथा पाइप आदि बनाने में किया जाता है |

वाइट ढलवा लोहा (White Cast Iron)

यह ढलवा लोहा सफेद रंग का होता है |
इस में कार्बन की मात्रा 2% से 4% तक होती है |
इसमें फ्री कार्बन की अपेक्षा संयुक्त कार्बन की मात्रा अधिक होती है |
सलेटी ढलवा लोहे की अपेक्षा यह अधिक कठोर होता है इसलिए इस पर आसानी से मशीनिंग क्रिया नहीं की जा सकती है |
यह कम घिसता है |

सलेटी ढलवा लोहे का उपयोग

इसका अधिकतर उपयोग पिटवा लोहा (Wrought Iron) बनाने के लिए किया जाता है |

मोटल्ड ढलवा लोहा (Mottled Cast Iron)

इस तरह के ढलवा लोहे में कठोरता तथा सामर्थ्य का गुण मध्यम होता है |
इस लोहे में फ्री कार्बन की मात्रा तथा संयुक्त कार्बन की मात्रा बराबर बराबर होती है |

मोटल्ड ढलवा लोहे का उपयोग

इसका उपयोग ऐसे पुर्जे बनाने के लिए किया जाता है, जिन पर मशीनिंग क्रिया आसानी से की जा सके |
तथा उनकी कठोरता और सामर्थ्यता भी बनी रहे |

आघातवर्धनीय ढलवा लोहा (Malleable Cast Iron)

आघातवर्धनीय ढलवा लोहे मैं भंगुरता के गुण को कम कर दिया जाता है | तथा इसकी आघातवर्धनीयता तथा टफनेस बढ़ा दी जाती है |
यह लोहा श्वेत ढलवा लोहे से बनाया जाता है |श्वेत ढलवा लोहे को इस्पात के बॉक्स में लोह आक्साइड के साथ 900 डिग्री सेंटीग्रेड से 950 डिग्री सेंटीग्रेड ताप तक गर्म किया जाता है |
यह तापमान ढलाई के अनुसार 5 से 30 घंटे तक रखा जा सकता है |
इस प्रकार जो ढलवा लोहा प्राप्त होता है वह मुलायम और टफ होता है |और इसमें सामर्थ्यता, आघातवर्धनीयता तथा तन्यता भी बढ़ जाती है |

आघातवर्धनीय ढलवा लोहे का उपयोग

इसका उपयोग हल्की ढलाईयो (Casting) के लिए किया जाता है |

चिल्ड ढलवा लोहा (Chaild Cast Iron)

इस लोहे को सलेटी ढलवा लोहे से बनाया जाता है |
इस लोहे को बनाने के लिए सलेटी ढलवा लोहे को दोबारा पिंगला कर ठंडे सांचों में भरकर एकदम ठंडा कर दिया जाता है |जिसके कारण ढलाई की बाहरी सतह कठोर हो जाती है|

चिल्ड ढलवा लोहे का उपयोग

इस प्रकार के ढलवा लोहे का उपयोग ऐसे मशीनिंग पुर्जे बनाने के लिए किया जाता है, जिन की बाहरी सतह कठोर रखनी होती है |

ढलवा लोहे की सीजनिंग (Seasoning Of Cast Iron)

सीजनिंग करने के लिए ढलाई (Casting) को खुले वातावरण में कई महीनों तक रखा जाता है, जिससे सर्दी गर्मी लगने से उसकी सीजनिंग हो जाती है |
सीजनिंग के पश्चात पुर्जे (Parts) के ऊपर दूसरे प्रकार की मशीनरी क्रियाएं की जा सकती है |

कास्ट आयरन की सीजनिंग क्यों आवश्यक है ?

ढलवा लोहे में कार्बन की मात्रा अधिक होने तथा दूसरी अशुद्धियां होने के कारण कास्टिंग करने के पश्चात पुर्जो में थोड़ा सा विरूपण (Distortion) आ सकता है इसलिए ढलाई (Casting) के बाद पुर्जो कि सीजनिंग करना आवश्यक होता है |


दोस्तों इस पोस्ट में हमने जाना ढलवा लोहा और ढलवा लोहे के गुण, ढलवा लोहे का उपयोग एवं ढलवा लोहे की उत्पादन विधि, क्यूपोला भट्टी (Cupola Furnace)और ढलवा लोहे की सीजनिंग (Seasoning Of Cast Iron) आदि के बारे में | आपको हमारा यह पोस्ट कैसा लगा अगर इस पोस्ट से संबंधित आपका कोई सुझाव या शिकायत है तो कृपया हमें कमेंट करें धन्यवाद |

लौह धातुएं (Ferrous Metals) क्या होती हैं |और कच्चा लोहा (Pig Iron)

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दोस्तों इस पोस्ट में हम जानेंगे लौह धातुएं (Ferrous Metals) क्या होती है | कच्चे लोहे (Pig Iron) का परिचय और उसे प्राप्त करने की विधि एवं लौह अयस्क के प्रकार तथा लोहे की शोधन विधि, वात्या भट्टी (Blast Furnace), कच्चे लोहे के गुण, एवं कच्चे लोहे के उपयोग

लौह धातुएं (Ferrous Metals)

वे सभी धातुएं जिनमें लोहे का अंश उपस्थित होता है लौह धातुएं कहलाती है |
इन धातुओं में लोहे के अंश के अलावा बहुत कम मात्रा में कार्बन, गंधक, मैगजीन, एवं फास्फोरस आदि तत्व भी उपस्थित होते हैं |
इस वर्ग में लोहा, इस्पात और इसकी एलॉय भी शामिल होते हैं|
जब दो या दो से अधिक लोह धातुओं को मिलाकर कोई मिश्रित धातु बनाई जाती है तो हम उसे लोह मिश्र धातु (Ferrous Alloy Metal) कहते हैं |
जैसे- टंगस्टन इस्पात, क्रोमियम इस्पात, निकिल इस्पात आदि |

कच्चा लोहा (Pig Iron)

कच्चा लोहा एक अशुद्ध लोहा होता है, जिसको सीधे किसी कार्य में प्रयोग नहीं लिया जा सकता है |
लोहे को खानों से खोदकर निकाला जाता है लेकिन खान से प्राप्त लोहा शुद्ध नहीं होता है इसके साथ बहुत सी अशुद्धियां मिली होती है | इन अशुद्धियों को गैंग (Gangue) कहते हैं |

लौह अयस्क (Iron Ore)

लोहे और गैंग की मिश्रण को लोहा अयस्क (Iron Ore) कहा जाता है |
लौह अयस्क (Iron Ore) एक खनिज पदार्थ होता है, जिसका उपयोग लोहे के उत्पादन में किया जाता है |

लौह अयस्क के प्रकार (Types Of Iron Ore )

लौह अयस्क कुल 5 प्रकार के होते हैं जो निम्नलिखित हैं |
  • हेमेटाइट (Haematite)
  • मैग्नेटाइट (Magnetite)
  • लिमोनाइट (Limonite)
  • साइडराइट (Siderite)
  • पायराइट (Pyrite)

हेमेटाइट (Haematite)

यह लोहे का एक लाल रंग का ऑक्साइड होता है |
इसमें लगभग 70% तक लोहा होता है |

मैग्नेटाइट (Magnetite)

यह लोहे का काले रंग का ऑक्साइड होता है |
इसमें लगभग 72 प्रतिशत लोहा होता है |

लिमोनाइट (Limonite)

यह लोहे का भूरे रंग का ऑक्साइड होता है |
इसमें लगभग 60% तक लोहा पाया जाता है |

साइडराइट (Siderite)

यह लौह अयस्क भी लोहे की भूरे रंग का ऑक्साइड होता है |
इसमें लगभग 48% तक लोहे की मात्रा उपस्थित होती है |

पायराइट (Pyrite)

इस लौह अयस्क का प्रयोग लोहे के उत्पादन में बहुत कम किया जाता है |
क्योंकि इस में लोहे की मात्रा 40% से कम पाई जाती है | तथा इससे लोहा प्राप्त करने के लिए अधिक खर्च आता है |

लोहे की शोधन विधि (Purification Method Of Iron)

लोहे की अशुद्धियों को चार विधियों के द्वारा अलग किया जा सकता है | जो निम्नलिखित हैं |
  1. सान्द्रण द्वारा (By Concentration)
  2. गुरुत्वाकर्षण द्वारा (By Gravity)
  3. चुंबकीय पृथक्करण द्वारा (By Magnetic System)
  4. स्मेल्टिंग द्वारा (By Smelting)

सान्द्रण द्वारा (By Concentration)

इस विधि में पहले लोहे के अयस्क को छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में तोड़ लिया जाता है फिर सांद्रण के द्वारा मिट्टी और दूसरी अशुद्धियों को साफ कर लिया जाता है |

गुरुत्वाकर्षण द्वारा (By Gravity)

गुरुत्वाकर्षण विधि के अनुसार लोहा अयस्क को तोड़कर छोटे-छोटे टुकड़ों में पीस लिया जाता है |इसके बाद इन टुकड़ों को बहते हुए पानी में डाल दिया जाता है, जिसके कारण अशुद्धियां हल्की होने के कारण पानी के साथ रह जाती हैं तथा लोहा भारी होने की कारण नीचे बैठ जाता है |

चुंबकीय पृथक्करण द्वारा (By Magnetic System)

इस विधि के अनुसार बारीकी से पिसे हुए लोहे के अयस्क को एक चुंबकीय पट्टे पर डाला जाता है |
यह चुंबकीय पट्टा दो पुलियो के द्वारा चलाया जाता है |
इस विधि में लोहे के कण चुंबकीय पट्टे के साथ चिपक जाते हैं तथा अशुद्धियां नीचे गिर जाती हैं |

स्मेल्टिंग द्वारा (By Smelting)

किस विधि के द्वारा लौह अयस्क को साफ करने के लिए वात्या भट्टी (Blast Furnace) का प्रयोग किया जाता है |
इस विधि में अशुद्धियां झाग के रूप में बाहर निकल जाती है | और शुद्ध लोहा एक तरफ एकत्रित हो जाता है |
इस विधि में लोह अयस्क को गाढ़ा करने के बाद वात्या भट्टी (Blast Furnace) के द्वारा पिंघलाकर कच्चा लोहा (Pig Iron) तैयार किया जाता है |

वात्या भट्टी (Blast Furnace)

यह भट्टी बनावट में चिमनी के आकार की होती है |इसका बाहरी भाग इस्पात की चादर (Sheet) से बना होता है एवं आंतरिक भाग में अग्नि सह ईटों (Fire Bricks) का स्तर बना होता है |
इस भट्टी की ऊंचाई लगभग 15 मीटर से 30 मीटर तक तथा इसका व्यास 5 मीटर से 8 मीटर तक होता है |
इस के निचले भाग में बाहर निकलने वाले मार्ग बने होते हैं,
जिसमे एक भाग से पिंगली हुई धातु तथा दूसरे भाग से स्लेग या गंदगी समय-समय पर बाहर निकलते हैं |
इस के निचले भाग से थोड़ा सा ऊपर वायु प्रवाह के लिए पाइप लगे होते हैं, जिनमें वायु पंखे या ट्वीयर्स के द्वारा दी जाती है |
इन पाइपों में से लगभग 700 डिग्री सेंटीग्रेड से 800 डिग्री सेंटीग्रेड तक की गरम वायु प्रवाहित होती है |
इनको पानी से ठंडा किया जाता है | वायु ईंधन को जलाने में सहायक होती है |
भट्टी के ऊपरी भाग से चार्ज को भेजने के लिए कप और कोन की व्यवस्था होती है | इस भाग से चार्ज अंदर जाता है और गर्म अशुद्ध गैस बाहर निकल जाती है |

चार्ज (Charge)

वात्या भट्टी में इंधन या चार्ज के रूप में लोहे के साथ कोयला और चूने के पत्थर का निश्चित अनुपात प्रयोग किया जाता है |

वात्या भट्टी की कार्यविधि (Functions Off Blast Furnace)

वात्या भट्टी के निचले श्री में लकड़ी जला कर ट्वीयर्स के द्वारा वायु को प्रवाहित किया जाता है और कप तथा कोन द व्यवस्था से लोहा, कोयला तथा चूने के पत्थर के मिश्रण को चार्ज के रूप में डालते हैं |
जैसे ही चार्ज भट्टी के निचले हिस्से में पहुंचता है तो उसे अधिक ऊष्मा मिलती है, जिससे जिससे लोहा पिंगल कर पेंदे में इकट्ठा हो जाता है तथा अशुद्धियां स्लेज के रूप में तैरने लगती है |
इसके बाद पिंगले हुए लोहे तथा स्लेग को अलग-अलग रास्तों से बाहर निकाल लेते हैं |
इस पिंगली हुई धातु को सांचों में भर कर ठंडा कर लिया जाता है इसे ही कच्चा लोहा (Pig Iron) कहते हैं |

कच्चे लोहे के गुण (Properties Of Pig Iron)

कच्चे लोहे में निम्नलिखित गुण पाए जाते हैं |
  • कच्चा लोहा निम्न स्तर (घटिया) का लोहा होता है |
  • यह लोहा कमजोर तथा भंगूर होता है |
  • इस में कार्बन तथा अन्य अशुद्धियां अधिक मात्रा में पाई जाती हैं |
  • कच्चे लोहे में 93% तक लोहा होता है तथा 4% तक कार्बन होता है | एवं शेष भाग में सल्फर, मैग्नीज, सिलिकन, और फास्फोरस अशुद्धियों के रूप में पाए जाते हैं |

कच्चे लोहे का उपयोग (Use Of Pig Iron)

जैसा कि हम जानते हैं कच्चे लोहे में कार्बन की मात्रा अधिक होती है तथा इसमें अन्य अशुद्धियां भी होती हैं |
इसलिए इसका सीधा प्रयोग मशीन पुर्जे (Machine Parts) बनाने में नहीं किया जाता है |
कच्चे लोहे का उपयोग दूसरे प्रकार के लोहे तथा इस्पात बनाने में किया जाता है | जैसे- ढलवा लोहा (Cast Iron), पिटवा लोहा (Wrought Iron) और इस्पात(Steel) आदि
बनाने में किया जाता है |

दोस्तों इस पोस्ट में हमने जाना लौह धातुएं (Ferrous Metals) क्या होती है | कच्चे लोहे (Pig Iron) का परिचय और उसे प्राप्त करने की विधि एवं लौह अयस्क के प्रकार तथा लोहे की शोधन विधि, वात्या भट्टी (Blast Furnace), कच्चे लोहे के गुण, एवं कच्चे लोहे के उपयोग के बारे में

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धातु का परिचय तथा धातुओं के भौतिक एवं यांत्रिक गुण

 दोस्तों इस पोस्ट में हम जानेंगे धातु का परिचय तथा धातुओं के भौतिक एवं यांत्रिक गुण कौन-कौन से होते हैं |

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धातु का परिचय (introduction of metal)

धातु एक खनिज पदार्थ होता है जो खानों से अयस्क के रूप में निकाला जाता है और तैयार किया जाता है |
धातु ठोस, अपारदर्शक, भारी, तथा विद्युत और ताप की सुचालक होती है |
धातुओं को खींचकर या पीटकर तार अथवा चादर के रूप में बदला जा सकता है|
धातु का उपयोग - मुख्य रूप से इंजीनियरिंग कार्यों में, रेडियो टेलीग्राम, विद्युत का सामान, मोबाइल फोन, शक्ति उत्पन्न करने वाली मशीनें जैसी पुल, रेलवे इंजन, हवाई जहाज, मोटर गाड़ियां आदि बनाने के लिए किया जाता है |

धातुओं के गुण (properties of metals)

धातु में मुख्य रूप से तीन प्रकार के गुण पाए जाते हैं जो निम्नलिखित हैं -
  • भौतिक गुण (physical properties)
  • यांत्रिक गुण (Mechanical properties)
  • रासायनिक गुण (chemical properties)

धातुओं के भौतिक गुण (physical properties of metal)

भौतिक गुण किसी भी धातु में प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं | यह गुण धातु में स्थाई रूप से पाए जाते हैं और भौतिक गुणों के कारण ही धातुओं को देखकर और छूकर हम मालूम कर सकते हैं |
एक धातु में निम्नलिखित भौतिक गुण पाए जाते हैं -
1. रंग (colour)
2. भार (weight)
3. संरचना (structure)
4. चालकता (conductivity)
5. चुम्बकीयता (magnetic)
6. गलनीयता (Fusitility)

1. रंग (colour)-

सभी धातु अलग-अलग रंग की होती हैं, जिसके कारण वह आसानी से पहचानी जा सकती हैं |
जैसे- सोने का रंग सुनहरा, चांदी का रंग सफेद, तांबे का रंग लालपन लिए हुए, पीतल का रंग पीला आदि

2. भार (weight)

सभी धातुओं का भार उनके आयतन के अनुसार निश्चित होता है | अलग-अलग धातुओं का भार अलग अलग होता है | जैसे- सीसा (lead) सबसे भारी होता है वहीं एलुमिनियम सबसे हल्की धातु होती है |
धातुओं का भार प्रति घन सेंटीमीटर में लिया जाता है |

3. संरचना (structure)

किसी भी धातु को अगर तोड़कर देखा जाए तो उनके अंदर की बनावट अलग-अलग होती है, जैसे- ढलवा लोहे (cast iron) की क्रिस्टलाइन, पिटवा लोहे (wrought iron) की आंतरिक संरचना फाइबर्स (fibrous) की होती है, तथा स्टील की आंतरिक बनावट ग्रेनुलर (granular) होती है |

4. चालकता (conductivity)

चालकता धातु का वह गुण है जिसके कारण उष्मा और विद्युत उसकी एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंच जाती है, इसे ही चालक का गुण कहते हैं |

जिन धातुओं में उष्मा व विद्युत का प्रवाह एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं हो पाता है उसे कुचालक कहा जाता है |

सभी धातुओं में चालकता का गुण विद्यमान होता है इसीलिए ही धातु को विद्युत का सुचालक कहा जाता है |

5. चुम्बकीयता (magnetic)

चुम्बकीयता (magnetic) धातु का वह गुण होता है जिसके कारण एक चुंबक धातु को अपनी ओर खींचता है |
चुम्बकीयता के गुण के कारण ही हमें यह पता लगता है कि कौन सी धातु लौह धातु है तथा कौन सी धातु अलौह धातु है|

6. गलनीयता (Fusitility)

गलनीयता धातु का वह गुण है जिसके कारण प्रत्येक ठोस धातु को एक निश्चित तापमान तक गर्म करने पर वह द्रव के रूप में पिघल जाती है |
गलनीयता के गुण के कारण ही धातुओं को ढालना (casting) संभव हो पाता है |

सभी धातुओं का गलनांक अलग अलग होता है,

 जैसे- तांबे का गलनांक 1080 डिग्री सेंटीग्रेड, ढलवा लोहे का गलनांक 1250 डिग्री सेंटीग्रेड, टिन का गलनांक 230 डिग्री सेंटीग्रेड, और पिटवा लोहे का गलनांक 1600 डिग्री सेंटीग्रेड होता है |

धातुओं के यांत्रिक गुण (Mechanical properties of metals)

अलग-अलग प्रकार के विभिन्न बलों के प्रभाव में धातु की प्रतिक्रिया को दर्शाने वाले गुणधर्म ही धातु के यांत्रिक गुण कहलाते हैं | इंजीनियरिंग के क्षेत्र में  धातुओं के यांत्रिक गुणों का गहनता से अध्ययन किया जाता है क्योंकि किसी भी मशीन का विकास और सफलता इन्हीं गुणों पर आधारित होती है |
सभी धातुओं में कुछ यांत्रिक गुण होते हैं, किंतु धातुओं में अन्य मिश्र धातुएं(Alloy Metals) मिलाकर और अन्य उपयोगी यांत्रिक गुण भी उत्पन्न किए जा सकते हैं, जिससे वस्तुओं (Products) की गुणवत्ता बढाई जा सकती है |

धातुओं में निम्नलिखित यांत्रिक गुण पाए जाते हैं-

1. तन्यता (ductility)
2. आघातवर्धनीयता (malleability)
3. लचीलापन (elasticity)
4. प्लास्टीकता (plasticity)
5. कठोरता (hardness)
6. चीमड़पन (toughness)
7. भंगुरता (brittleness)
8. टेनेसिटी (tenacity)
9. मशीनता (machining)
10. थकान प्रतिरोध (fatigue resistance)

1. तन्यता (ductility)-

किसी भी धातु का वह गुण जिसके कारण उसे खींचने पर बिना टूटे तार के रूप में बदला जा सकता है, इसे तन्यता का गुण कहते हैं |
अगर देखा जाए तो ज्यादातर धातुएं गरम अवस्था की अपेक्षा ठंडी अवस्था में अधिक तन्य होती हैं |

तन्यता का गुण प्लेटिनम में सबसे अधिक होता है |

2. आघातवर्धनीयता (malleability)-

किसी धातु का वह गुण जिसके कारण धातु को ठंडी अवस्था में पीटकर अथवा रोलिंग करके छात्र के रूप में बदला जा सकता है, उसे आघातवर्धनीयता (malleability) का गुण कहते हैं |
इस गुण के कारण इस क्रिया में धातु टूटती और फटती नहीं है |

आघातवर्धनीयता का गुण सोने में सबसे अधिक पाया जाता है |

3. लचीलापन/प्रत्यास्था (elasticity)-

धातु का वह गुण जिसके कारण उस धातु पर बल लगाकर खींचने पर उसकी लंबाई में वृद्धि हो जाए तथा बल को हटाने पर वह पुनः अपनी प्रारंभिक स्थिति में आ जाए तो धातु की इस गुण को लचीलापन या प्रत्यास्था का गुण कहते हैं |
प्रत्यास्था का गुण कम या अधिक सभी धातुओं में पाया जाता है |

4. प्लास्टीकता (plasticity)-

प्लास्टीकता (plasticity) धातु का वह गुण है जिसके कारण उसे उष्मा (heat) या दाब(pressure) देकर निश्चित आकृति में बदला जाए और उष्मा या दाब को हटाने पर वापस अपनी पूर्व स्थिति में नहीं आये तो इस गुण को धातु की प्लास्टीकता का गुण कहते हैं |
प्लास्टीकता के गुण के कारण यदि धातु को पुनः पूर्व स्थिति में लाना है तो उसके लिए उष्मा तथा दाब का होना अति आवश्यक है |

5. कठोरता (hardness)-

किसी धातु का वह गुण जिसके कारण यदि उस धातु को किसी कठोर पदार्थ से काटा, खुरचा या घिसा जाते तो वह इसका विरोध करें तो इस गुण को कठोरता का गुण कहते हैं|
कठोरता के गुण के कारण एक कठोर धातु दूसरी मुलायम धातु को काट, खुरच तथा घिस सकती है |

6. चीमड़पन (toughness)

यह किसी धातु का वह गुण है जिसके कारण  उसे बार-बार मोड़ने यह मरोड़ने पर टूटती नहीं है, इसे चीमड़पन का गुण कहते हैं |
चीमड़पन (toughness) के गुण के कारण ही धातु के तार के रस्से बनाए जाते हैं |

7. भंगुरता (brittleness)

भंगुरता धातु का वह गुण है जिसके कारण उसे चोट लगाने पर वह टुकड़े-टुकड़े के रूप में अथवा पाउडर के रूप में बदल जाती है, इसी गुण को धातु की भंगुरता का गुण कहते हैं |
भंगुरता का गुण ढलवा लोहा (cast iron) तथा सीसा (lead) में अधिक पाया जाता है |

8. टेनेसिटी (tenacity)

यह धातु का वह गुण होता है जिसके कारण उस पर खिंचाव बल लगाने पर वह टूटती नहीं है, इसे टेनेसिटी (tenacity) का गुण कहते हैं |
इस गुण के कारण ही धातु खिंचाव बल को सहन कर लेती है |

9. मशीनता (machining)

यह धातु का वह गुण होता है जिसके कारण एक धातु से दूसरी धातु पर मशीनिंग (maching) क्रिया आसानी से की जा सकती है, इस गुण को मशीनता (machining) कहते हैं |
मशीनता (machining) के गुण के कारण ही धातु से बने औजारों (tools) के द्वारा दूसरी धातुओं को कटा या घिसा जा सकता है |

10. थकान प्रतिरोध (fatigue resistance)-

यह धातु का वह गुण है जिसके कारण उसे लगातार झटके लगाने पर भी उसे अंतिम समय तक टूटने से बचाता है, इसे थकान प्रतिरोध का गुण कहते हैं |
थकान प्रतिरोध (fatigue resistance) के गुण के कारण बड़ी-बड़ी मशीनें कम्पन्न तथा झटकों को सहन करती हैं |


अब हम जान चुके हैं धातु क्या होती है तथा धातु के भौतिक गुण एवं धातु के रासायनिक गुण क्या होते हैं | दोस्तों क्या यह पोस्ट आपके लिए मददगार था अगर इस पोस्ट से संबंधित आपके पास कोई शिकायत या सुझाव है तो हमें कमेंट करें

शीतलक (coolant) क्या है और इसके क्या लाभ है

 

दोस्तों इस पोस्ट में हम जानेंगे शीतलक (coolant) क्या होता है यह कितने प्रकार का होता है तथा इसके क्या लाभ हैं, शीतलक ओर स्नेहक मैं अंतर |

शीतलक (coolant)

जब हम किसी कार्यखण्ड या जॉब पर कटिंग का कार्य करते हैं तो बहुत अधिक ऊष्मा उत्पन्न होती है | इस ऊष्मा को अपने साथ बहाकर ले जाने वाले पदार्थ को हम शीतलक (coolant) कहते हैं |



अगर देखा जाए तो पानी एक अच्छा शीतलक (coolant) होता है और इसकी शीतल (cool) करने की क्षमता भी अच्छी होती है |
पानी का उपयोग उष्मा उपचार तथा रोलिंग कार्य में शीतलक के रूप में प्रयोग किया जाता है |
पानी एक सस्ता, आसानी से प्राप्त होने वाला, और ऊष्मा का अच्छा चालक तथा इसकी विशिष्ट ऊष्मा के आधार पर एक अच्छा शीतलक माना जाता है |
लेकिन पानी को जब हम शीतलक के रूप में प्रयोग करते हैं तो यह सावधानी बरतनी चाहिए की मशीन पर जंग नहीं लगे | इसके लिए सोडा वाटर मिश्रण को सस्ते शीतलक के रूप में प्रयोग करना चाहिए | यह सोडियम कार्बोनेट और पानी का मिश्रण होता है | जिसे गाढ़ा बनाने के लिए मुलायम साबुन मिला दिया जाता है | इसमें स्नेहन (lubricating) गुणों को बढ़ाने के लिए लॉर्ड तेल भी मिलाया जाता है |
टर्निंग, मीलिंग और ड्रिलिंग आदि संक्रियाओं (operations) के लिए सस्ते मिश्रण का प्रयोग किया जाता है | जिससे सोडियम कार्बोनेट लार्ड तेल तथा मुलायम साबुन बराबर बराबर मात्रा में मिलाकर शेष भाग में पानी को मिलाया जाता है, जिसे जलीय विलियन कहते हैं |

रासायनिक शीतलक (chemical coolant)

पानी के अंदर बहुत से रासायनिक अवयवों के घुले हुए मिश्रण को रासायनिक शीतलक कहते हैं | इनमें से कुछ अवयव स्नेहक (lubricant) के गुण को भी प्रदर्शित करते हैं |
शीतलक (coolant) का प्रवाह (flow) आंशिक शीतलन के द्वारा तन्यता (ductility) को कम करते हुए छीलन (chips) को तोड़ने का कार्य भी करता है |
शुद्ध शीतलक जंग निरोधक होते हैं |
रासायनिक शीतलको के उपयोग से मशीनन (machining) करते समय धातु को अधिक तेजी  से हटाया जा सकता है |
रासायनिक शीतलक अन्य शीतलको की तुलना में अधिक समय तक रहते हैं तथा छीलन (chips) को बैठने तथा प्राप्त करने में सहायक होते हैं |
केवल उन धातुओं को छोड़कर जिनमें शुष्क (dry) मशीनिंग लाभकारी होता है इनके अलावा सभी धातुओं में शीतलक (coolant) का प्रयोग किया जाता है |

शीतलक के लाभ (advantage of coolant)

अगर देखा जाए तो शीतलक के विभिन्न लाभ हैं कुछ विशेष लाभ के बारे में हम यहां दर्शा रहे हैं |
इसको अधिक उच्च चालो (high speed) पर प्रयोग किया जा सकता है |
इसके प्रयोग से औजारों (tools) का जीवनकाल बढ़ जाता है |
शीतलक का प्रयोग औजारों में धार लगाते समय किया जाता है |
अनेक शीतलक स्नेहक (lubricant) का कार्य करते हैं उनके प्रयोग से औजार(tools) तथा जॉब के बीच घर्षण कम होता है |

शीतलक का प्रयोग करते समय सावधानियां (precaution of coolant)

जब भी शीतलक का प्रयोग करते हैं तब हमें निम्नलिखित सावधानियां अपनानी चाहिए -
1. औजार की धार (cutting edge) तथा कार्य खंड या जॉब की सतह दोनों पर ही पर्याप्त मात्रा में प्रयोग करना चाहिए |
2. शीतलक की मात्रा को संक्रिया (operation) के अनुसार समायोजित (adjust) करना चाहिए |
3. शीतलक का बहाव अधिक दाब (high pressure) में नहीं होना चाहिए |
4. मशीन संक्रिया (machine operation) शुरू होते ही शीतलक का प्रवाह(flow) भी शुरू हो जाना चाहिए |
5. शीतलक को लगातार धार (jet) के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए |
6. कर्तन चाल (cutting speed) के बढ़ने के साथ-साथ शीतलक का प्रवाह भी बढ़ना चाहिए |
7.शीतलक (coolant) का टैंक एक बड़े आकार का होना चाहिए जिससे कि शीतलक हमेशा ठंडा रह सके |
8. कार्बाइड औजारों द्वारा मशीनिंग करते समय शीतलक (coolant) की आवश्यकता नहीं होती है |

शीतलक और स्नेहक में अंतर (difference between coolant and lubricants)

शीतलक और स्नेहक मैं अन्तर निम्नलिखित है -
1. शीतलक का प्रयोग कार्य खंड और कर्तन औजारों से उत्पन्न हुई उष्मा को दूर करने के लिए किया जाता है |
तथा स्नेहक का प्रयोग दो मिलकर चलने वाले पुर्जों की घर्षण द्वारा उत्पन्न ऊष्मा को कम करने के लिए किया जाता है |
2.शीतलक (coolant) के प्रयोग से छीलन को औजार के फलक के साथ वैर्ल्ड नहीं होता है |
तथा स्नेहक के प्रयोग से चलने वाले पुर्जे जाम नहीं होते हैं |
3. शीतला के प्रयोग से औजार की क्षमता बढ़ती है |तथा स्नेहन के प्रयोग से मशीन को उच्च गति पर चलाया जा सकता है |
4. शीतला के प्रयोग से कम शक्ति लगाकर अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है |
तथा स्नेहन के प्रयोग से भी कम शक्ति लगानी पड़ती है क्योंकि तेल की एक चिकनी परत संपर्क मे गति करने वाले पुर्जो के बीच बन जाती है |
5. शीतलक के प्रयोग से कार्य खंण्ड या जॉब पर अच्छी फिनिश आती है |
वही लुब्रिकेंट्स के प्रयोग से मशीन की यथार्थता लंबे समय तक बनी रहती है |
6. इन दोनों के ही प्रयोग से मशीन व औजारों का जीवनकाल बढ़ता है|
7. शीतल के प्रयोग से प्रयोग किए जाने वाले औजारों पर जंग नहीं लगता है |
तथा स्नेहक के प्रयोग से मशीन के पुर्जो पर जंग नहीं लगता है|

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स्नेहक (lubrication) किन किन विधियों से किया जा सकता है (method of lubrication)

 

इस पोस्ट में हम जानेंगे स्नेहक(lubrication) की विधि के बारे में जैसे गुरुत्वीय भरण विधि, बल भरण विधि, स्प्लैश भरण विधि आदि

स्नेहक की विधि (method of lubrication)

दोस्तों स्नेहक की मुख्य रूप से तीन विधियां होती है जो निम्नलिखित हैं |
1. गुरुत्वीय भरण विधि (gravity feed method)
2. बल भरण विधि (force feed method)
3. स्प्लैश भरण विधि (splash feed method)

गुरुत्वीय भरण विधि (gravity feed method)

स्नेहको को मशीन पार्ट तक पहुंचाने हेतु इस विधि का उपयोग किया जाता है | इस विधि में एक तेल के टैंक को सीधे बियरिंग के ऊपर रखा जाता है, जहां से तेल आपस में स्पर्श करने वाली सतहों के बीच या बियरिंग के अंदर गुरुत्वाकर्षण (gravity) के द्वारा प्रवेश करता है |
इस सिद्धांत का उपयोग अनेक प्रकार के स्नेहन (lubrication) करने वाले साधनों द्वारा किया जाता है |
इस विधि में साधारण तेल छिद्र (oil hole) से लेकर बड़े तक तैयार की हुई बत्ती जिसमें तेल के बहाव को नियंत्रित किया जाता है इसी सिद्धांत पर आधारित होता है |
सभी तैल छिद्र पर किसी न किसी प्रकार कि युक्ति का प्रबंध होना आवश्यक है अन्यथा धूल मिट्टी से छिद्र भर जाएगा, इस कारण बियरिंग या सतहों का स्नेहन नहीं किया जा सकेगा |
इस विधि के अंतर्गत निम्नलिखित साधनों (युक्तियों) का प्रयोग किया जाता है
A. तेल कप (oil cap)
B. विक भरण लुब्रिकेटर (Wick feed lubricator)
C. ग्लास साइडेड ड्रिप भरण लुब्रिकेटर (glass sided drip feed lubricator)
D. ल्यूवेन्स ग्लास बोतल लुब्रिकेटर (lieuvain's glass bottle lubricator)

A. तेल कप (oil cap)

यह स्नेहन(लुब्रिकेशन) करने का एक प्रकार का साधारण साधन होता है | इसे चूड़ियों(threads) की सहायता से तेल छिद्र (oil hole) में फिट किया जाता है |
यह तेल छिद्र (oil hole) और तेल को धूल और मिट्टी के कणों से बचाता है |


इसमें एक दूसरा सिलेंडर तेल कप (cylinder oil cap) होता है जो कि गन मेटल का बना होता है, इसका मुख्य रूप से उपयोग ऊर्ध्वाधर भाप इंजन सिलेंडर के लिए किया जाता है |
इसमें तो कॉक भी होते हैं, जिनमें ऊपरी कॉक केवल तेल भरने के लिए तथा निचली कॉक से तेल सिलेंडर में जाता है|
इनमें हम जब भी कोई एक कॉक को खोलते हैं, तो दूसरे को हमेशा बंद रखते हैं |

B. विक भरण लुब्रिकेटर (Wick feed lubricator)

इसकी बनावट साइफन सिद्धांत पर आधारित होती है |
उदाहरण के लिए यदि दो बर्तनों को लेकर एक में द्रव भर कर किसी ऊंचे स्थान पर रख दिया जाए और एक नली में द्रव भरकर उसके एक सिरे को ऊपर रखे बर्तन में डुबो दिया जाए तथा दूसरे सिरे को नीचे वाले खाली बर्तन में डाल दिया जाए तो जब तक की नली का सिरा ऊपरी बर्तन में रखें द्रव में डूबा रहता है, तब तक लगातार नली के द्वारा नीचे रखे बर्तन में द्रव्य गिरता रहेगा |

C. ग्लास साइडेड ड्रिप भरण लुब्रिकेटर (glass sided drip feed lubricator)

इससे स्नेहन विधि को साइट भरण लुब्रिकेटर (sight feed lubricator) भी कहा जाता है |
इसके तेल का बर्तन या कुम्पी हमेशा कांच की बनी होती है |
कुम्पी के ऊपर एक छेद बना होता है, जिसको फिलिंग छेद कहा जाता है | इस छेद से तेल को कुम्पी में डाला जाता है |
यह तेल फिल्टर से छन कर एक छेद के द्वारा भीतरी चेंबर में प्रवेश करता है और गुरुत्वाकर्षण के कारण एक नोजल से होकर बूंद बूंद गिरता रहता है |
इस विधि में तेल के बहाव को नीडल वाल्व द्वारा नियंत्रित(control) किया जाता है |
साइड ग्लास से यह देखा जाता है की तेल कितनी मात्रा में नीचे गिर रहा है |

D. ल्यूवेन्स ग्लास बोतल लुब्रिकेटर (lieuvain's glass bottle lubricator)

ल्यूवेन्स ग्लास बोतल लुब्रिकेटर को नीडिल लुब्रिकेटर भी कहा जाता है |
यह एक कांच की बनी हुई बोतल होती है, जिसको तेल से भरा जाता है
इस बोतल के मुंह पर एक दोहरे टेपर (double taper) का डॉट फिट रहता है |


यह डॉट एक लकड़ी का बना हुआ स्टोपर होता है | इस डॉट के बीच में एक सूई (needle) ढीली की हुई होती है |
बोतल को उलट कर इसके डॉट का निचला सिरा बियरिंग की ऊपरी भाग पर बनी टोपी (cap) मैं बनी तेल छिद्र में फिट कर दिया जाता है |
और जब साफ्ट के घुमाव से सुई हिलती है तो इसमें हवा के बुलबुले तेल चेंबर में प्रवेश करते हैं और इन बुलबुलों के द्वारा तेल अलग-अलग होकर बूंद बूंद करके सॉफ्ट पर गिरता रहता है |
इसमें आवश्यकता अनुसार सुई लगाकर तेल के बहाव को नियंत्रित किया जा सकता है |
इस विधि में जब सॉफ्ट गति करती है केवल उसी वक्त तेल गिरता है | सॉफ्ट के स्थिर होने पर तेल नहीं गिरता है |

2. बल भरण विधि (force feed method)

बल भरण विधि को दाब भरण (pressure feed) विधि भी कहा जाता है |
इस विधि में लुब्रिकेटर के द्वारा स्नेहक (lubricant) पर दबाव देखकर स्नेहक को स्पर्श करने वाली दोनों सतहों के बीच या बेयरिंग के अंदर प्रवेश कराया जाता है |
बल या दाब देकर स्नेहन करने के लिए निम्नलिखित प्रणालियां प्रयोग में लाई जाती हैं |
A. लगातार भरण (continuous field)
B. हाथ पंप द्वारा दाब भरण (pressure feed by head pump)
C. ग्रीस गन द्वारा (by Grease gun)
D. स्क्रू डाउन ग्रीसर (screw down greaser)
E. टेल टेल ग्रीस लुब्रिकेटर (tale tale Grease lubricator)

A. लगातार भरण (continuous field)

इस प्रणाली में एक ऑयल पंप को एक मशीन के द्वारा चलाया जाता है, जो कि लगातार प्रत्येक संबंधित बियरिंग को स्नेहक(lubricant) पहुंचाता रहता है |
इस विधि में तेल बहकर एक सम्प (sump) में जमा हो जाता है और यहीं से पंप द्वारा इसी खींचा जाता है |

B. हाथ पंप द्वारा दाब भरण (pressure feed by head pump)

इस प्रणाली में मशीन ऑपरेटर को मशीन पर कार्य करते समय अपने हाथ से एक या दो बार हस्त पंप को चलाना पड़ता है |


इस प्रणाली के द्वारा प्रत्येक संबंधित सतह  या बियरिंग का स्नेहन होता है |

C. ग्रीस गन द्वारा (by Grease gun)

इस विधि में बियरिंग के ऑयल हॉल पर एक निप्पल लगा हुआ होता है |
इस निप्पल पर ग्रीस गन की नाक (nose) को फिट करके दबाया जाता है | जिसके कारण ग्रीस बियरिंग के अंदर प्रवेश करती है |
मुख्य रूप से 4 प्रकार की ग्रीस गन प्रयोग में ली जाती हैं जो निम्नलिखित  है |

1. टी हैंडल प्रेशर गन (t handle pressure gun)



2. स्वचालित तथा हाइड्रोलिक टाइप प्रेशर गन (automatic aur hydrolic type pressure gun)



3. लीवर टाइप प्रेशर गन (lever type pressure gun)



4. साधारण ग्रीस गन (simple pressure gun)



D. स्क्रू डाउन ग्रीसर (screw down greaser)

स्क्रू डाउन ग्रीसर को हस्त दाब स्टैफर भी कहा जाता है |
यह पीतल या ढलने लोहे का बना होता है |  अच्छी पकड़ के लिए इसके ऊपर की टोपी (कैप) को नर्ल किया जाता है|
और इस टोपी में आंतरिक चूड़ियां कटी होती है|
इस नर्ल की हुई टोपी को हाथ से घुमाकर सॉफ्ट के ऊपर ग्रीस को निचोडा जाता है |
इसका उपयोग धीमी गति से चलने वाले तथा भारी भार को सहन करने वाली बियरिंग मे किया जाता है |

E. टेल टेल ग्रीस लुब्रिकेटर (tale tale Grease lubricator)

इस प्रणाली में नालीदार एक टोपी या कैप होती है, जिसके साथ एक स्प्रिंग लगा हुआ पिस्टन होता है | जिसका साइज टोपी की छोटी साइज से मिलाया हुआ होता है |
इस पिस्टन को स्प्रिंग ही बलपूर्वक रोके रखती है |
इसमें टोपी को थोड़ा सा घुमाने के बाद ही स्वचालित (automatic) क्रिया चालू हो जाती है |
ग्रीस के बहाव को नियंत्रण में रखने के लिए ग्रीस चेंबर में लगे ग्रब इस स्क्रु को समायोजित (adjust) किया जा सकता है |

3. स्प्लैश भरण विधि (splash feed method)

इस विधि में साफ्ट उससे जुड़ा कोई एक भाग तेल में डूबा रहता है, जिस की गति के साथ स्नेहक(lubricant) की धारा उस भाग के चारों ओर लगातार उछलती रहती है |
यह विधि ऑल गियर ड्राइव के अंदर गीयर और बियरिंगो का स्नेहन करने के लिए अपनाई जाती है |



इसमें गियर का निचला सिरा यदि तेल में डूबा हो फिर भी तेल का उचित तल अवश्य होना चाहिए | इसकी व्यवस्था एक अलग फीलिंग स्पाऊंट के द्वारा की जाती है, जिसे तेल से भर कर रखा जाता है |
इस प्रणाली में बियरिंग बीच में से कटी होती है और सॉफ्ट पर एक रिंग गुजरती है | रिंग का निचला सिरा तेल टैक में डूबा रहता है | जब सॉफ्ट घूमती है, तब उसके साथ-साथ तेल चिपक कर शाफ्ट अथवा बियरिंग में पहुंचता है |


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स्नेहक (LUBRICANTS) के गुण तथा प्रकार

 

इस पोस्ट में हम जानेंगे स्नेहक(lubricants) क्या होते है लुब्रिकेंट्स के उद्देश्य तथा lubricants कितने प्रकार के होते हैं |

स्नेहक क्या होते हैं (introduction of lubricants)

जब दो पुर्जे (parts) आपस में रगड़ खाकर चलते हैं तो उनके बीच उत्पन्न होने वाले घर्षण को कम करने के लिए जो तरीके अपनाए जाते हैं उन्हें स्नेहक (lubricants) कहां जाता है |
जब किसी मशीन के दो पुर्जे (parts) आपस में रगड़ खाकर चलते हैं तो जल्दी घिस जाते हैं और खराब हो जाते हैं इन पुर्जो (parts) के बीच घर्षण को कम करने के लिए स्नेहको का प्रयोग किया जाता है|
स्नेहक के उचित प्रयोग से इनमें घर्षण कम होता है जिससे यह पुर्जे अधिक समय तक खराब नहीं होते तथा कम घिसते हैं|
स्नेहक(lubricant) के द्वारा पुर्जो के बीच में बहुत पतली परत बनाई जाती है यह परत संपर्क सतहो को अलग-अलग रखती है और पुर्जे घर्षण से बच जाते है |

स्नेहक के उद्देश्य (objects of lubricant)

स्नेहक के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं
1. मशीन या पुर्जे parts गर्म होने से बच जाते हैं |
2. मशीन या पुर्जो की गति बढ़ती है क्योंकि स्नेहक के उपयोग से गति प्रतिरोध कम होता है |
3. मशीन की यथार्थता बढ़ती है |
4. मशीन कम शक्ति खर्च करती है |
5. मशीन की उत्पादन क्षमता बढ़ती है |
6. मशीन या पुर्जो पर जंग नहीं लगता है |
7. मशीन के पार्ट्स कम घिसते हैं |

स्नेहक के गुण (properties of lubricants)

स्नेहक lubricants के मुख्यत 9 गुण होते हैं जो निम्नलिखित हैं |
1. श्यानता (viscosity)
2. चिकनाहट (oiliness)
3. स्फुरण बिंदु(flash point)
4. बहाव बिंदु (pour point)
5. अग्नि बिंदु(fire point)
6. वाष्पशीलता (volatality)
7. रासायनिक स्थिरता (chemical stability)
8. अम्लीयता (acidity)
9. इमल्सीफिकेशन (emulsification)

श्यानता (viscosity)

एक स्नेहक(lubricant) जब गति करता है तो इसके कण एक-दूसरे की गति का विरोध करते हैं | जिससे घर्षण प्रतिरोध उत्पन्न होता है, इसे ही श्यानता (viscosity)का गुण कहा जाता है |
अगर दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किसी द्रव की आपेक्षिक तरलता को ही उसकी श्यानता कहा जाता है|
कम श्यानता वाले स्नेहक पतले होते हैं और आसानी से बह सकते हैं | जबकि अधिक से श्यानता वाले स्नेहक गाढे होती हैं और इनके बहने की क्षमता भी कम होती है |

चिकनाहट (oiliness)

किसी स्नेहक या तेल की परत सॉफ्ट की गति से उत्पन्न होती है जब सॉफ्ट स्थिर रहती है तो स्नेहक की परत हटकर निचली सतह पर जमा हो जाती है फिर भी ऊपरी सतह पर चिकनाहट रहती है |
यह क्रिया स्नेहक की चिकनाहट पर निर्भर करती है जिसके कारण वह स्नेहक का गीलापन छोड़ती है |
चिकनाहट के अभाव के कारण पुर्जों आदि में थोड़ी बहुत गिरावट आ सकती है |इसलिए चिकनाहट oiliness स्नेहक का वह गुण होता है, जिससे सतहे है चिकनी रहती है |

स्फुरण बिंदु(flash point)

स्फुरण बिंदु(flash point) वह तापमान होता है जिस पर स्नेहक गर्म होकर भाप के रूप में बदलने लगता है और बिना आग लगाए स्वत: ही आग पकड़ लेता है |
सभी स्नेहको का स्फुरण बिंदु(flash point) अलग अलग होता है
इसलिए एक अच्छे स्नेहक में अधिक स्फुरण बिंदु(flash point) होना आवश्यक है |

बहाव बिंदु (pour point)

वह तापमान जिस पर स्नेहक ठंडा होकर गाढ़ा हो जाता है तथा उसका बहाव रुक जाता है उसे बहाव बिंदु (pour point) कहा जाता है |
वे मशीनें जो निम्न टेंपरेचर के लिए उपयोग में ली जाती हैं उनमें इनका महत्व अधिक होता है | जैसे - बर्फ बनाने वाली मशीन तथा रेफ्रिजरेटर

अग्नि बिंदु(fire point)

वह तापमान जिस पर स्नेहक की वाष्प जलने लगती है और तेल आग पकड़ लेता है उसे हम अग्नि बिंदु(fire point) कहते हैं |

वाष्पशीलता (volatality)

यह स्नेहक का वह गुण होता है, जिसके कारण उसके भार में कमी आ जाती है |एक अच्छे स्नेहक की वाष्पशीलता (volatality) कम होनी चाहिए |

रासायनिक स्थिरता (chemical stability)

किसी एक अच्छे स्नेहक में उच्च स्थिरता होनी चाहिए और इसका किसी भी स्थिति में अपघटन या ऑक्सीकरण नहीं होना चाहिए जिससे गाढ़ा होने से इसके बहाव में कमी ना आए |

अम्लीयता (acidity)

स्नेहक में यदि अमल की मात्रा स्वतंत्र रूप से होगी तो सताह खराब होने से घर्षण बढ़ता है |
स्नेहा को अमल की मात्रा होने पर जंग लगने से सतह खराब हो सकती है |
इसलिए एक अच्छे स्नेहक में प्रत्यक्ष रूप से अमल नहीं होना चाहिए |

इमल्सीफिकेशन (emulsification)

जब कोई स्नेहक पानी के साथ मिलता है तो उसे इमल्सीफिकेशन (emulsification) कहते हैं |
एक अच्छी किस्म के स्नेहक में पानी नहीं खुलता है
इमल्सीफिकेशन (emulsification) की भाप इंजन, भाप टरबाइन या हाइड्रॉलिक टरबाइन आदी में होने की संभावना ज्यादा होती है |

स्नेहक के प्रकार (types of lubricants)

स्नेहको को तीन श्रेणियों में बांटा गया है जो निम्नलिखित है|
1. द्रव स्नेहक (liquid lubricants)
2. अर्ध ठोस स्नेहक (semi solid lubricant)
3. ठोस स्नेहक (solid lubricant)

1. द्रव स्नेहक (liquid lubricants)

द्रव स्नेहको को निम्नलिखित प्रकार से बांटा गया है|
A. कार्बनिक तेल (organic oil)
B. खनिज तेल (mineral oil)
C. कृत्रिम तेल (synthetic oil)

कार्बनिक तेल (organic oil)

कार्बनिक तेल को फैटी ऑयल या स्थिर आयल भी कहते हैं|
यह कार्बनिक तेल (organic oil) पशु(animal) वनस्पति और मछलियों से प्राप्त किए जाता हैं|
मछलियों के सिर से निकाला गया तेल भी स्नेहक के रूप में प्रयोग किया जाता है |

कार्बनिक तेल के गुण (properties of organic oil)

यह तेल अत्यधिक कीमती होता है |
नमी वाली वायु या जलीय साधन से जलयुक्त होने की प्रकृति के कारण क्रिया में अम्लीय होता है |
वायु के संपर्क में ऑक्सीजन * करने तथा गाढ़ा होने की अधिक प्रवृत्ति होती है |
यह तेल के छेद hole को बंद कर देता है |

खनिज तेल (mineral oil)

यह तेल पेट्रोलियम से प्राप्त होते हैं तथा यह पैराफिन या नैफ्थनिक तेल होते हैं |
नैफ्थनिक तेलो की अपेक्षा पैराफिन तेल उच्च तापमान पर स्वच्छता से टिकते हैं |
तापमान में वृद्धि के साथ पैराफिन तेलों की अपेक्षा नैफ्थनिक तेल स्नेहक के लिए निम्नलिखित स्तर के होते हैं|
कार्बनिक तेलों की अपेक्षा खनिज तेलों की श्यानता कम होती है | इसलिए इन्हें क्रूड आयल (crude oil) भी कहा जाता है |
खनिज तेलों की श्यानता की परास अधिक होती है तथा यह कम चिपचिपा और कार्बनिक तेलों से अधिक चिकनाहट वाला होता है |
इनकी क्षमता को बढ़ाने और इनको भारी बनाने के लिए इनमें 5% से 25% तक कार्बनिक तेलों को मिलाया जाता है जिसे संयुक्त तेल (compound oil) कहते हैं|
उपयोग के आधार पर खनिज तेल नो को पेट्रोलियम स्नेहक के रूप में निम्नलिखित रुप में कर सकते हैं |
सर्कुलेटिंग आयल, गियर आयल, मशीन या इंजन आयल, रेफ्रिजरेशन आयल, स्पिंडल ऑयल, स्टीम सिलेंडर ऑयल, वायर रोप स्नेहक आदि |

कृत्रिम तेल (synthetic oil)

सिंथेटिक ऑयल महंगे होते और इनका उपयोग सीमित स्थानों पर किया जाता है |
यह पोलीएल्कालीन ग्लेकोस तथा योगिक सिलिकॉन होते हैं|
यह सिलिकन कोल और बालू से तैयार किए जाते हैं |
इनमें सिलीकान कार्बाईड को अलग-अलग तत्वों के साथ सिलिकन और ऑक्सीजन में रासायनिक क्रिया द्वारा बदल दिया जाता है, जिसे सिलिकॉन स्नेहक कहते हैं |

2. अर्ध ठोस स्नेहक (semi solid lubricant)

यह स्नेहक साबुन के समान गाढ़ा खनिज तेल होता है |
यह तेल की अपेक्षा उच्च श्यानता वाला होता है |
इसके द्वारा अलग-अलग प्रकार की ग्रीस तैयार की जाती है|
इसे गाढा बनाने के लिए इसमें पेट्रोलियम और कृत्रिम तेल मिलाए जाते हैं |
इसमें सोडियम, कैल्शियम, एलमुनियम, बेरियम, लिथियम, और स्ट्रान्सियम के साबुन फैट मिलाये जाते है|
यह साबुन फैट और धातु आधार की रासायनिक क्रिया की उपज होते हैं |
अर्थ ठोस स्नेहक अर्थात ग्रीस का उपयोग उन स्थानों पर किया जाता है जहां पर उच्च तापमान पैदा होता है और जिसमें द्रर्व स्नेहको का प्रयोग करना संभव न हो |

3. ठोस स्नेहक (solid lubricant)

ऐसी जगह जहां दबाव व तापमान के कारण जहां तेल परत नहीं बन पाती, ऐसी जगह घर्षण को कम करने के लिए  ठोस स्नेहक (solid lubricant) का प्रयोग किया जाता है|
इस प्रकार के ठोस स्नेहक का प्रयोग अकेले अथवा इनके साथ तेल या ग्रीस मिलाकर किया जाता है | इसका सबसे अच्छा उदाहरण ग्रेफाइट होता है |
ग्रेफाइट के अलावा ठोस स्नेहक जैसे - सॉपस्टोन, टेल्क, वैक्स, माइका, और फ्रेंच चौक आदि होते हैं |


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